इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार को मुस्लिम पक्ष द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें हिंदू उपासकों द्वारा दायर 1991 के सिविल मुकदमे की निचली अदालत में सुनवाई को चुनौती दी गई थी. मुकदमे में ज्ञानवापी परिसर में पूजा करने का अधिकार मांगा गया था. जस्टिस रोहित रंजन अग्रवाल ने आज फैसला दिया कि हिंदू पक्ष के मुकदमे की सुनवाई पूजा स्थल अधिनियम (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 द्वारा वर्जित नहीं है. यह मुकदमा, जो वाराणसी की अदालत में लंबित है वो ज्ञानवापी और काशी विश्वनाथ मंदिर से संबंधित है और आसपास स्थित हैं.

हाईकोर्ट ने फैसले में कहा कि निचली अदालत में लंबित मुकदमे की सुनवाई 6 महीने में पूरी की जाए. साथ ही हाईकोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की सभी पांच याचिकाएं खारिज कर दीं. इसमें पूजा के अधिकार के मुकदमे को चुनौती देने वाली 3 याचिकाएं और एएसआई सर्वे के आदेश को चुनौती देने वाली 2 याचिकाएं शामिल हैं.

हाईकोर्ट ने फैसले के निष्कर्ष में कहा कि यह मौजूदा सूट है कि हिन्दू पक्ष की ओर से निचली अदालत में दाखिल किए गए दावे पर सुनवाई को पूजा स्थल कानून-1991 की धारा-4 के तहत प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता. साथ ही सीपीसी के आदेश 7, नियम 11 के तहत अस्वीकार नहीं किया जा सकता.

धार्मिक चरित्र परिभाषित नहीं

एक्ट में धार्मिक चरित्र को परिभाषित नहीं किया गया है, जबकि धर्म परिवर्तन तथा पूजा के स्थान को परिभाषित किया गया है. किसी विवादित स्थल का धार्मिक चरित्र क्या होगा, यह सिर्फ सक्षम अदालत ही तय कर सकती है. यह एक विवादित तथ्य है, क्योंकि ज्ञानवापी परिसर में सिर्फ आंशिक (पूजा की मांग) राहत की ही मांग की गई है.

ज्ञानवापी परिसर या तो एक हिंदू या एक मुस्लिम धार्मिक चरित्र ही होगा, क्योंकि इसके दो चरित्र नहीं हो सकते हैं. यह अदालत तय करेगी कि इसका चरित्र क्या है? तमाम सबूतों, दलीलों को सुनने और तथ्यों को देखने के बाद यह तय किया जाएगा. शुरुआती तौर पर इससे जुड़ा हुआ कोई भी फैसला नहीं लिया जा सकता है. इस एक्ट में सिर्फ धर्म परिवर्तन पर रोक लगी है पर इस एक्ट में यह नहीं बताया गया है कि ऐसे धार्मिक स्थल के चरित्र का निर्धारण कैसे किया जाए, जो 15 अगस्त, 1947 के पहले से स्थापित है.

हाई कोर्ट बोला- बचाव पक्ष की ओर से केवल लिखित बयान

इस मामले में जो सबसे पहला मुकदमा दायर हुआ था उसको भी दायर हुए 32 साल का वक्त गुजर चुका है और इस दौरान बचाव पक्ष की तरफ से सिर्फ लिखित बयान दिए गए और किन मुद्दों पर बहस हो सकती है यह तय हुआ. रही बात 13 अक्टूबर, 1998, यानी 25 सालों के दौरान इस पूरे मामले में ज्यादा कोई प्रगति नहीं देखी गई.

इस मामले में जो मुद्दा उठाया गया है वो राष्ट्रीय महत्व का है. ये सिर्फ दो लोगों के बीच का विवाद नहीं है, बल्कि देश के दो बड़े समुदाय के बीच का मामला है. क्योंकि इस मामले में 1998 में एक अंतरिम आदेश आया था जिसके चलते यह मामला आगे नहीं बढ़ पाया. लिहाजा राष्ट्रीय महत्व को ध्यान में रखते हुए इस मामले का दोनों पक्षों के सहयोग और तथ्यों को देखते हुए जल्द निपटारा किया जाए.

बेवजह तारीख बढ़ाने की मांग करने वालों पर लगे जुर्माना’

यह मामला पिछले 32 सालों से अदालत में लंबित है, लिहाजा निचली अदालत इस मामले का जल्द निपटारा करे. कोशिश की जाए कि इस मामले का निपटारा अगले 6 माह के भीतर किया जाए. इसके साथ ही इस मामले में बेवजह स्थगन (एडजर्नमेंट) नहीं दिया जाए. अगर कोई तारीख बढ़ाने की बेवजह मांग करे तो उस पर भारी जुर्माना भी लगाया जाए.

एएसआई को निर्देश दिया जाता है कि वह जो सर्वेक्षण करेगा. उसकी रिपोर्ट 1991 से लंबित मामले में भी दाखिल करेगा. इसके मद्देनजर अदालत वैज्ञानिक सर्वे को लेकर कोई आदेश नहीं जारी कर रही है. अगर निचली अदालत कोई 1991 से लंबित मामले में सर्वे को लेकर कोई पहलू ऐसा लगता है तो वह आदेश जारी कर सकती है. हाईकोर्ट इस मामले में लंबित पांचों याचिकाओं को खारिज करती है.