अमित बनवारी की कलम से

ज़हरीली गैस से मरने वालों में, मैं भी था ?

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल उस काली रात को याद कर आज भी डर से उठ जाती है ।
चारो तरफ़ भगदड़ औऱ चीख पुकार औऱ अपनों को खो कर टपकती आंखे कई तो सुबह उठकर कई सपने सच करने सोये थे लेक़िन उठे ही नही कई भगदड़ में दब कर मर गये तो किसी की सांसें जहरी हवा ने छिन ली।

उस जहरी गैस में जो 2 दिसम्बर 1984 की दर्मियानी रात को भोपाल की हवा में मिलगई औऱ हज़ारो को काल के आग़ोश में ले गयी। में भी इस ज़हरीली गैस का शिकार हुआ और मेरी आत्मा मेरे शरीर से अलग हो गयी छण भर भी नही लगा मेरे अंदर के इंसान को मारने में अपनों को बचाने में मैने न मासूमो को देखा न वृद्धों को ना गर्भवती महिलाओं को औऱ रौंदता चला गया । हवा के साफ़ होते ही लाशों के ढ़ेर खड़े कर दिये जलाने वालो को जला दिया दफ़नाने वालो को दफना दिया। औऱ खड़ा हो गया मुवाज़े कि कतार में क्यो कि में भी उस ज़हरीली गैस से अंदर से मार चुका था उस दिन?

सरकार ने मुवाज़े के नाम पर सिर्फ खाना पूर्ति की ईलाज के नाम बंदर बाट कि पीड़ित आज भी अंदर ही अंदर उस गैस से जल रहा है? पीड़ितों को दर्द से उबारने वाले संगठनों ने अपना उल्लू सीधा किया?

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न रोजगार मिला, न ईलाज, न दर्द से उबरने का रास्ता क्योकि उस ज़हरीली गैस से मरने वालों में, मैं भी था?