मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज चौहान मंगलवार को भरे गले से कह रहे थे कि दो दशक तक मध्य प्रदेश सरकार के मुखिया बने रहने के बावजूद उन्होंने अपनी चदरिया पर दाग नहीं लगने दिया. मैं उसे जस का तस मोहन यादव को सौंप दूंगा. अब यह उनका बड़बोलापन है या हताशा, यह तो वे ही जानें. परंतु वे यह नहीं बता पाये कि यदि उनकी चदरिया इतनी ही बेदाग थी तो चुनाव जीतने के लिए वे तो प्रदेश में विधायक दल का भरोसा क्यों नहीं जीत सके?
वे भूल गये कि आज से दो महीने पहले तक मध्य प्रदेश में कोई नहीं मान रहा था कि शिवराज चौहान के नेतृत्त्व में भाजपा मध्य प्रदेश में जीत पाएगी. प्रधानमंत्री को वहां डेरा डाल कर अपने नाम की गारंटी देनी पड़ी, तब कहीं जा कर मध्य प्रदेश में पार्टी चुनाव जीत सकी. वह भी इतने विशाल अंतर से कि एक या दो विधायकों के इधर-उधर होने से पार्टी की सेहत का कुछ नहीं बिगड़ने वाला था.
2018 में शिवराज की ताजपोशी
अभी पांच वर्ष पूर्व 2018 के विधानसभा चुनाव में यही शिवराज चौहान थे और यही कांग्रेस के कमलनाथ, फिर भी भाजपा के विधायक कांग्रेस विधायकों की तुलना में पीछे रह गये. तब कांग्रेस ने कमलनाथ के नेतृत्त्व में सरकार बनाई थी. वह तो ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आ जाने से उनके विधायक आ कर जुड़ गये थे, इस कारण भाजपा आला कमान ने एक वर्ष बाद फिर से शिवराज की ही ताजपोशी कर दी.
यह तो पक्की बात है, कि पांच वर्ष पहले प्रदेश की जनता शिवराज से इतनी आजिज़ नहीं थी. फिर क्यों भाजपा चुनाव में हारी थी? शिवराज भूल जाते हैं, कि उनके सिर पर नाकामियों का इतना बड़ा टोकरा है, कि वे चाहे जितनी सफ़ाई दें कोई भी उनकी बात को मानने के लिए राज़ी नहीं है. दरअसल यह जुमला उनके अंदर के दर्द को प्रकट कर रहा है.
कुर्सी से अधिक महत्त्वपूर्ण जन आकांक्षा
मध्य प्रदेश को वे उसी तरह अपनी जागीर समझ बैठे थे, जैसे कि कई पूर्व महाराजा अपनी रियासतों के आज़ाद भारत में विलय के लिए तैयार नहीं थे. वे भूल चुके थे कि 20 वीं सदी लोकतंत्र की है. अब जिसने भी कुर्सी को अपनी विरासत समझा वह तो गया. यह बात पूर्व राजाओं को सरदार पटेल ने ठीक से समझा दिया था. लोकतंत्र में कुर्सी से अधिक महत्त्वपूर्ण है, जन आकांक्षा. जनता का जिसने भी भरोसा खोया, कुर्सी उसके हाथ से गई.